उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जनपद में इस गांव में भगवान यक्ष के नर पश्र्वा के रूप में नर देवता ने दहकते अंगारों में नृत्य किया और इसके साथ ज़ाख मेला संपन्न हुआ।
केदारघाटी अपनी विशिष्ट संस्कृति एवं धार्मिक परंपराओं के लिए विख्यात है। यहां की परंपराएं कई दृष्टियों में बेजोड़ भी हैं। स्थानीय जनमानस की धार्मिक भावनाओं से जुड़ा जाख मेला उनमें से एक है।मेले की तैयारियां चैत माह की 20 प्रविष्ट से शुरू हो जाती है, जब बीज वापन मुहूर्त के साथ जाखराज मेले की कार्ययोजना निर्धारित की जाती है.पारंपरिक रूप से यह मेला प्रतिवर्ष बैशाख माह की 2 प्रविष्ट यानी बैसाखी के अगले दिन होता है। क्षेत्र के कुल 14 गांवों का यह पारंपरिक मेला है, किंतु मुख्य सहभागिता तीन गांवों देवशाल, कोठेडा और नारायणकोटी की होती है।
आस्था, अध्यात्म और विस्मयकारी क्षणों को अपने में समेटे भगवान यक्ष के नर पश्र्वा के दहकते अंगारों पर नृत्य करने के साथ ही जाख मेला सम्पन्न हुआ। इस बार भगवान जाख (यक्ष) ने तीन बार अग्निकुंड में प्रवेश किया. नृत्य के कुछ देर बार हल्की बूंदाबांदी होने से भक्तों के चेहरे पर खुशी देखने को मिली।
वर्षों से इस मंदिर में विशाल अग्निकुंड के धधकते अंगारों पर नर पश्र्वा नृत्य करके श्रद्धालुओं को आशीर्वाद देते हैं। यह संभवत इतिहास का पहले ऐसा मेला है, जहां पर विशाल अग्निकुंड के अंगारों पर मानव द्वारा ढोल दमाऊ, भोंपू और जाख देवता के जयकारों के बीच देव नृत्य करता है। रोंगटे खड़े करने वाले इस दृश्य को देखकर सभी लोग हतप्रभ हैं।
बरसों से चली आ रही परंपराओं का निर्वहन करते हुए नर देवता को उनके मूल गांव से देवशाल स्थित विंध्यवासिनी मंदिर तक पहुंचाया जाता है। जहां पर विंध्यवासिनी मंदिर की परिक्रमाएं पूर्ण कर जाख की कंडी और जलते दीये के पीछे जाख मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं। मंदिर पहुंचने के बाद कुछ देर बांज के पेड़ के नीचे ढोल सागर की थाप पर देवता अवतरित होते हैं। देव स्वरूप में आने के बाद मंदिर में पहुंचकर देव को तांबे की गागर में भरे हुए पुण्य जल से स्नान करवाते हैं। इसके बाद पूरे वेग से नर देव देखते ही देखते दहकते अंगारों पर तीन बार नृत्य करने के बाद लोगों को आशीर्वाद देते हैं।
गुप्तकाशी से लगभग 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित जाख मंदिर है। जिसे भगवान यक्ष के रूप में भी जाना जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कुरुक्षेत्र युद्ध के बाद मोक्ष की कामना के लिए केदारनाथ धाम की ओर प्रस्थान करने से पूर्व इस स्थान पर द्रौपदी सहित पांडवों ने विश्राम लिया था.ल। द्रोपदी को प्यास लगी तो, उन्होंने पांडवों से निकट ही स्थित जल कुंड से जल लाने का आग्रह किया। वहां पर बारी बारी चारों पांडवों से भगवान यक्ष उनसे एक प्रश्न पूछते हैं। जिनका उत्तर न देने पर भगवान यक्ष पांडवों के चार भाइयों को मृत्यु का श्राप दे देते हैं. कुछ देर बाद सत्यवादी युधिष्ठिर जब जल कुंड के पास आते हैं, तो अपने भाइयों की दुर्दशा देखकर व्याकुल होते हैं। जैसे ही भगवान यक्ष उनसे भी वही प्रश्न करते हैं, जिसका उत्तर सत्यवादी युधिष्ठिर दे देते हैं. प्रसन्न होकर भगवान सभी पांडवों को पुनर्जीवित कर देते हैं।
हालांकि वहां पर जल मान्यताओं के अनुसार जल कुंड था, जो वर्तमान में मानवों द्वारा निर्मित अग्निकुंड में परिवर्तित हो गया है। बताया जाता है कि जब जाख देव इस अग्निकुंड में प्रवेश करता है, तो उसे उसे अग्निकुंड में अंगारों के स्थान पर शांत जल दिखाई देता है। इस दृश्य को देखने के बाद हजारों श्रद्धालुओं की आंखों में आंसू भर जाते हैं. उनके मंदिर में जाने के बाद श्रद्धालुओं द्वारा विशाल अग्निकुंड से प्रसाद स्वरूप भभूत ले आते हैं। मान्यता है कि इस भभूत का लेप लगाने से कई चर्म रोगों से मुक्ति मिल जाती है। मेले से पूर्व कई दिनों से नारायण कोटी , देवशाल और कोठड़ा के भक्तों द्वारा पूजा पद्धति के अनुसार मंदिर के सामने विशाल अग्नि कुंड का निर्माण करते हैं।
संक्रांति के दिन रातभर विशाल अग्निकुंड में लकड़ियों को एकत्रित कर अग्नि प्रज्वलित की जाती है। रात्रि जागरण कर भगवान जाख के जयकारे और भजन गाए जाते हैं. दो प्रविष्ट वैशाख को प्रातः काल अग्निकुंड से विशाल लकड़ियों को निकाला जाता है और लाल अंगारों को अग्निकुंड में ही छोड़ जाता है। जिस पर कई जोड़ी ढोल द्वारा ढोल सागर की थाप, भोंपू और जाख के जयकारों के साथ भगवान जाख मानव रूप में अवतरित होकर इस कुंड में कूद पड़ते हैं।