उच्च शिक्षा में तीन चुनौतियां, तीन समाधान, विशेष तौर पर तीसरी चुनौती का समाधान जिससे ड्रापआउट में कमी आ सकती है – डॉ सुशील उपाध्याय

उत्तराखंड शिक्षा समस्या
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उत्तराखंड में हायर एजुकेशन में तीन चुनौतियों की बात लंबे समय से की जाती रही है।इन चुनौतियों और समाधान पर विस्तार से लिखा है डॉ सुशील उपाध्याय ने । उनके अनुसार वैसे, ये तीन चुनौतियां केवल उत्तराखंड तक सीमित नहीं है, बल्कि इन्हें किसी न किसी रूप में पूरे देश के संदर्भ में देखा और समझा जा सकता है। पहली चुनौती है, स्टूडेंट का कक्षा में ना आना। दूसरी, हर एक सेमेस्टर में कुल अवधि में आधे से भी ज्यादा समय तक परीक्षाएं संचालित होती रहना। तीसरी चुनौती जो बहुत महत्वपूर्ण चुनौती है, वो ये कि जिन ग्रेजुएट को विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में तैयार किया जा रहा है, उनकी इम्पलाइबिलिटी क्या स्तर है। (अक्सर कहा जाता है कि ज्यादातर ग्रेजुएट नौकरी के लायक होने की बात तो दूर, जागरूक नागरिक होने भर की योग्यता भी नहीं रखते।) अब ये चुनौतियां सामने हैं तो इनका समाधान क्या होगा ? इस टिप्पणी में समाधान की दृष्टि से उत्तराखंड को ही फोकस किया गया है।
प्रदेश के संदर्भ में बड़ी हद तक इनका समाधान किया जा सकता है। एआईएसएचआई की नई रिपोर्ट (2021-22) से पता चल रहा है कि उत्तराखंड में सामान्य उच्च शिक्षा में कुल पंजीकृत स्टूडेंट्स में लड़कियों की संख्या 50 फीसद से अधिक है। अब यदि इन लड़कियों को एडमिशन के बाद नियमित रूप से कक्षाओं में उपस्थित रखना है तो इसका बहुत आसान तरीका उपलब्ध है। इस वक्त उच्च शिक्षा में पंजीकृत हर एक लड़की को सरकार द्वारा तीन साल की अवधि के पाठ्यक्रम के लिए 50000 रुपये स्काॅलरशिप के रूप में दिए जा रहे हैं। ये राशि एडमिशन के पहले साल में ही एकमुश्त रूप में दी जा रही है।
इस स्कॉलरशिप को एकमुश्त देने की बजाय इसे इस तरह से व्यवस्थित किया जाना चाहिए कि इसका लाभ केवल उन्हीं छात्राओं को मिले जो नियमित रूप से क्लास में आ रही हैं। इसे लागू करने का तरीका यह हो कि एक बार में 50000 देने की बजाय इस राशि को मासिक अवधि में परिवर्तित कर दिया जाए। इसके बाद इसकी दैनिक दर लगभग 100 रुपये निर्धारित करते हुए यह अनिवार्य कर दिया जाए कि यह राशि उन्हीं छात्राओं को प्राप्त होगी जो अपने महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालय में बायोमेट्रिक उपस्थिति दर्ज कराएंगी। यह प्रक्रिया बहुत आसान है क्योंकि ज्यादातर शिक्षण संस्थाओं में एससी, एसटी आदि श्रेणी की स्कॉलरशिप के लिए बायोमैट्रिक उपस्थिति अनिवार्य है।
उत्तराखंड में हर एक सेमेस्टर में 90 दिन की उपस्थिति निर्धारित की गई है, जिसमें से 75 प्रतिशत यानी 68 दिन की उपस्थिति अनिवार्य है। यदि ऐसा मान लें कि प्रत्येक छात्रा इन 90 दिन में से 75 दिन उपस्थित रहेगी तो सरकार को प्रति सेमेस्टर में 7500 रुपये का भुगतान करना होगा। 6 सेमेस्टर के दृष्टिगत यह राशि 45000 रुपये होगी। (अगर कोई शत-प्रतिशत भी उपस्थित रहे तब भी यह राशि 54 हजार से अधिक नहीं होगी।) इससे दो लाभ होंगे-पहला, सरकार के धन का सही फायदा उन स्टूडेंट्स को हो सकेगा जो नियमित रूप से क्लास में आते हैं। दूसरे, यह राशि ऐसी छात्राओं के पास जाने से बच सकेगी जो केवल पहले वर्ष में 50000 की स्कॉलरशिप लेकर अगले वर्ष की पढ़ाई छोड़ देती हैं।
सामान्य तौर पर देखें तो 100 रुपये दैनिक की दर बहुत आकर्षक नहीं लगती, लेकिन प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में किसी भी छात्रा के लिए यह राशि इस मायने में आकर्षक है कि वह इसके जरिए अपनी तीन से चार हजार रुपये की वार्षिक फीस और रोजाना महाविद्यालय आने में खर्च होने वाले राशि का भुगतान कर सकेगी। प्रदेश में एससी, एसटी वर्ग के छात्र-छात्राओं के लिए क्रमशः 19 और 4 फीसद कोटा तय किया गया है। इनके अलावा ओबीसी और दिव्यांग श्रेणी में क्रमशः 14 और 4 फीसद आरक्षण निर्धारित है। इन सभी श्रेणियों (कुल मिलाकर 41 फीसद) छात्रों को भारत सरकार अथवा राज्य सरकार की कोई न कोई स्कॉलरशिप प्राप्त होती है।
ओबीसी और दिव्यांग श्रेणी के लड़कों पर भी बायोमैट्रिक उपस्थिति की वही व्यवस्था लागू करनी चाहिए जो लड़कियों के मामले में लागू की जा सकती है। ये सभी श्रेणी मिलकर 41 फीसद बनती हैं। इनमें 50 फीसद लड़कियों को जोड़ लें तो कुल 90 प्रतिशत छात्र-छात्राएं स्कॉलरशिप के दायरे में आ जाते हैं। इस व्यवस्था को लागू करने से न तो सरकार पर कोई अतिरिक्त बोझ पड़ेगा और न ही इसके लिए कोई अतिरिक्त तंत्र विकसित करना होगा। यदि इस व्यवस्था को नए सत्र से लागू कर दिया जाए इसके परिणाम तो तुरंत ही दिखाई देने लगेंगे।
दूसरी चुनौती परीक्षा अवधि की है। विगत तीन वर्षों की परीक्षा अवधि को देखें तो उनका ये औसत निकलेगा कि हर एक सेमेस्टर में आधे से ज्यादा दिनों तक किसी ने किसी उपाधि की परीक्षा संचालित होती रही है। लगातार होने वाली परीक्षाओं के कारण कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाई का माहौल बनने से पहले ही खत्म हो जाता है। इस समस्या का समाधान निकालना भी कोई कठिन काम नहीं है। प्रदेश के उच्च शिक्षा मंत्री बीते कई साल से कोशिश कर रहे हैं कि पूरे उत्तराखंड में सरकारी विश्वविद्यालयों और उनसे जुड़े कॉलेजों में एडमिशन लेने, परीक्षा फॉर्म भरने, परीक्षा देने और परिणाम घोषित करने की एक समान व्यवस्था होनी चाहिए। इसके लिए मौजूदा सत्र में सरकार ने समर्थ पोर्टल के माध्यम से एकीकृत प्रवेश व्यवस्था तथा एकीकृत मूल्यांकन व्यवस्था लागू की है, लेकिन अभी इसके परिणामों की समीक्षा की जानी है।
ध्यान देने वाली बात यह है कि उत्तराखंड में उच्च शिक्षा में विभिन्न उपाधियां में लगभग चार लाख छात्र-छात्राएं पंजीकृत हैं। इन चार लाख छात्र-छात्राओं के लिए प्रदेश की दर्जन भर सरकारी यूनिवर्सिटी ने अलग-अलग तरह की परीक्षा व्यवस्था और परिणाम घोषित करने का अलग मैकेनिज्म बनाया हुआ है। स्थिति यह है कि सबसे अधिक छात्र संख्या वाली श्रीदेव सुमन यूनिवर्सिटी, नई टिहरी और कुमाऊं यूनिवर्सिटी, नैनीताल में विभिन्न कक्षाओं के परिणाम घोषित होने में तीन महीने तक का वक्त लग जाता है। जब तक परिणाम नहीं आते, तब तक अगली कक्षा की पढ़ाई आरंभ नहीं होती, ऐसे में स्टूडेंट्स महीनों तक अधर में लटके रहते हैं।
इसका आसान समाधान उत्तराखंड की 10वीं 12वीं की बोर्ड परीक्षा की व्यवस्था में छिपा हुआ है। उत्तराखंड बोर्ड में हर साल 3 लाख से अधिक छात्र-छात्राएं परीक्षा देते हैं। बोर्ड में परीक्षा देने से लेकर परिणाम घोषित करने तक का काम 3 महीने के भीतर पूरा हो जाता है। जबकि इस कार्य में विश्वविद्यालय 6 महीने से ज्यादा का वक्त ले रहे हैं। बेहतर यह हो कि सरकार सभी विश्वविद्यालयों की परीक्षाओं के लिए विश्वविद्यालय के संसाधनों से ही एक ऐसा संयुक्त तंत्र विकसित करे जो उत्तराखंड बोर्ड के समान ही केंद्रीयकृत तौर पर परीक्षाओं का आयोजन करते हुए निर्धारित अवधि में परिणाम घोषित करे। केंद्रीयकृत परीक्षा में इसलिए कोई समस्या नहीं है क्योंकि सभी विश्वविद्यालयों ने यूजीसी के कॉमन सेलेबस को स्वीकार किया हुआ है। इस व्यवस्था को लागू करना भी कोई कठिन काम नहीं है बशर्ते कि इसके लिए सरकार सभी विश्वविद्यालयों को तैयार कर सके। चूंकि, सभी सरकारी विश्वविद्यालय सरकार द्वारा प्रदत्त अनुदान के आधार पर संचालित होते हैं तो उन्हें एक समान व्यवस्था के अंतर्गत समाहित किए जाने में कोई बड़ी चुनौती नहीं है।
तीसरी बात यह है कि सरकारी और अनुदानित संस्थाओं में शिक्षकों द्वारा अपने छात्रों के जीवन को गढ़ने में कितनी मेहनत की जा रही है ? सामान्य उच्च शिक्षा (बीए, बीएससी, बीकॉम आदि) में इस वक्त छात्रों द्वारा जो इक्का-दुक्का उपलब्धि हासिल की जाती हैं उनमें शिक्षकों की भूमिका नगण्य ही होती है। यदि कुल निवेश और उसके परिणामों की दृष्टि से देखें तो निजी संस्थानों के परिणाम अपेक्षाकृत बेहतर हैं। (इसका यह अर्थ न निकाला जाए कि निजी संस्थानों में सब कुछ अच्छा हो रहा है और सरकारी संस्थानों में कुछ भी अच्छा नहीं है।) उल्लेखनीय है कि सरकारी/अनुदानित कॉलेजों तथा राज्य विश्वविद्यालयों में काम कर रहे शिक्षकों को सरकार नियमित रूप से आकर्षक वेतन दे रही है। शिक्षकों को अच्छे परिणामों और उपलब्धियों हेतु प्रेरित करने के लिए उनके वेतन के एक हिस्से को अथवा वार्षिक इन्क्रीमेंट को उनकी परफार्मेंस के साथ जोड़ा जाना चाहिए।
अब यहां यह प्रश्न हो सकता है कि वे कौन-सी उपलब्धियां होंगी जिनके आधार पर किसी शिक्षक का मूल्यांकन किया जा सकता है। इसमें पहली बात तो यही है कि किसी विषय के छात्रों ने विश्वविद्यालय की परीक्षा में किस तरह का प्रदर्शन किया है। दूसरी बात यह है कि किसी शिक्षक के कितने छात्रों ने अपनी अध्ययन अवधि में ऐसे कितने पुरस्कार, अध्येतावृत्ति, नौकरी हेतु चयन अथवा अन्य उपलब्धियां प्राप्त की हैं, जिसकी उनसे अपेक्षा की जाती है। शिक्षकों के इस मूल्यांकन के लिए एक व्यापक मैकेनिज्म और एसओपी तैयार की जानी चाहिए और इसे तैयार करते वक्त शिक्षकों की राय को भी सम्मिलित करना चाहिए ताकि वे खुद बता सके कि कौन सी उपलब्धियों के आधार पर उनका मूल्यांकन होना चाहिए। शिक्षकों के इन्क्रीमेंट और प्रमोशन आदि के लिए अभी तक यूजीसी ने जो व्यवस्था लागू की हुई है, वह जरूरत से ज्यादा दस्तावेज-केंद्रित, जटिल और गैर-उपयोगी उपलब्धियों पर केंद्रित है।
गौरतलब है कि उत्तराखंड सरकार ने अपने राजकीय इंटर कॉलेज में बोर्ड परीक्षा के परिणाम को आगामी इंक्रीमेंट के साथ जोड़ा हुआ है। यदि किसी शिक्षक का परीक्षा परिणाम बहुत खराब रहता है तो उसे चेतावनी निर्गत करने से लेकर इंक्रीमेंट रोके जाने तक की व्यवस्था बनी हुई है। यह बात अलग है कि इसका अमल किस स्तर पर और कितने प्रभावी ढंग से हो रहा है, लेकिन यह सिस्टम मौजूद है। इसी सिस्टम को कुछ बेहतर ढंग से उच्च शिक्षा में लागू किया जाना चाहिए। सवाल यह है कि यदि महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे छात्र रोजगार के लायक बनकर सामने नहीं आ रहे हैं तो फिर इसका जिम्मेदार कौन है? इसके किसी ने किसी हिस्से के लिए शिक्षक भी जिम्मेदार होंगे ही। फिलहाल, यदि उत्तराखंड में उपस्थिति और परीक्षा व्यवस्था के मौजूदा सिस्टम को बेहतर कर दिया जाए तो यकीनन शिक्षा की गुणवत्ता में उल्लेखनीय बदलाव दिखाई देगा। गुणवत्ता बढ़ने के साथ संबंधित युवाओं की इम्पलाइबिलिटी भी बढ़ी हुई दिखाई देगी। हालांकि किसी भी बात को लागू करने से पहले उसके सभी स्टेकहोल्डर्स से व्यापक विमर्श की आवश्यकता होती है। ऐसा ही इन तीनों चुनौतियों के समाधान की दिशा तय करते वक्त भी होना चाहिए।

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